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क्यों रखा जाता है वटसावित्री व्रत, जानिये वट के पूजन का कारण

पवन विजय की वॉल से साभार 


क्यों रखा जाता है वटसावित्री व्रत, जानिये वट के पूजन का कारण 



 सावित्री को अपने पिता की चेतावनी बार बार स्मरण हो उठती, उसने गिनती लगाई, आज मास का अंतिम दिवस है। तपस्या और प्रेम की परीक्षा का आखिरी पड़ाव आ पहुँचा था। अंधे सास ससुर को खाना खिलाकर वह सत्यवान के साथ लकड़ियाँ काटने चलने लगी तो सत्यवान ने टोका, मैं ले आऊँगा तुम घर पर ही रहो किंतु सावित्री ने पिछले महीने से सत्यवान को एक पल भी अकेले न छोड़ा तो आज कैसे अकेले जाने देती। उसने पति के साथ राह ली, सत्यवान मुस्कुराये, कैकय देश की कन्याएं अपने संकल्प की दृढ़ होती हैं, फिर दोनों हाथ थामे जंगल की ओर निकल गए।


सावित्री अपने कुल देवी का बार बार ध्यान कर आर्त मन से रक्षा की गुहार मन ही मन करती जा रही और पति को निहारती जा रही। जंगल पहुँच कर सत्यवान ने कुल्हाड़ी ली और एक पेड़ पर चढ़ गए, वह लकड़ियाँ काट कर गिराने लगे और कैकय देश की राजकुमारी उसे बीन रही थी। बिधना का लेख कौन पढ़ सकता है। प्रेम का मूल्य चुकाते हुए एक राजकुमारी आज लकड़ियाँ बीन रही थी, आने वाले युगों के लिए उदाहरण प्रस्तुत कर रही थी कि प्रेम में कोई सीता अपने पति के साथ जंगल जंगल चले, कोई द्रौपदी पति के साथ निर्वासन चुने।



अचानक सत्यवान के हाथ से कुल्हाड़ी छूट गयी, वह किसी तरह नीचे उतरे, सांस लेने में परेशानी होने लगी। सावित्री समझ गयी, टूटते स्वर में सत्यवान उसका हाथ पकड़ कर बोले, प्रिये लगता है विछोह का समय आ गया। सावित्री ने पति का सिर अपने गोद मे लिया आँचल से हवा करते हुए दृढ़ता से बोली, आर्य आपको मैं कहीं नही जाने दूँगी। यमराज से छीनकर ले आऊंगी, देखती हूँ मेरे रहते मेरे पति से मुझे कौन विछोह देता है पर यह सुनने के लिए सत्यवान की चेतना नही बची। उनका सिर सावित्री की गोद में लुढ़क गया। एक वृद्ध महात्मा सामने दिखे, पास आकर देखा, बोले बेटी विधाता ने तुम दोनों का साथ यहीं तक लिखा था। धीरज रखो, एक दिन सबको जाना है। सावित्री बोली, हे महात्मा! मैं आर्यपुत्री हूँ, मेरा संकल्प दृढ़ है, मैं सौभाग्यवती होकर इस संसार से विदा लूंगी और उस समय मेरी मांग में सिंदूर मेरे पति भर कर विदा करेंगे।


साधु ने बहुत समझाया पर सावित्री ने एक न मानी और महात्मा से सत्यवान को पास में बरगद के वृक्ष के नीचे ले चलने का अनुरोध किया। वट वृक्ष के असंख्य प्राणवायु कण सत्यवान के प्राण के साथ मिल गए। सावित्री ने वट की छाल को कुरेद कर उसका दूध निकाल सत्यवान के माथे पर लेपन करने लगी। वट की शीतल प्राणवायु और जीवनदायिनी दुग्ध द्रव से सत्यवान की रंगत बदलने लगी। सावित्री बार बार शिव प्रिया से गुहार लगाने लगीं, महाकाली का आसन डोला, उन्होंने काल को पीछे हटने का आदेश दिया, सत्यवान के नयन खुल गए। 


साधु ने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया, वह साक्षात यमराज थे बोले, पुत्री तुम्हारी निष्ठा ने मेरे कालपाश को तोड़ दिया। यह एक पत्नी की सामर्थ्य है जिसके आगे स्वयं यमराज नत है। मैं जा रहा हूँ, तुम दोनों शतायु हो। ऐसा कह कर यम अपने लोक चले गए। 


सत्यवान चलने को हुए तो सावित्री ने उन्हें रोका और नैनों में नीर भर कर वट के पास गयीं और बोलीं, मेरे भाई नही हैं किंतु आपने मेरी रक्षा की, आप ऐसे ही हर सुहागन की रक्षा करना भइया, कह कर अपना चीर फाड़कर वट में बांध दिया।

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