विशाल पांडेय की कलम से
तकदीर।
रूमा के बड़े बंगले पर आज उसके जन्मदिन की दावत थी,शहर के सभी बड़े अधिकारी आये थे,आखिर आते भी क्यों नही रूमा भी किसी परिचय की मोहताज जो नहीं थी।वह भी तो एक बड़ी अधिकारी थी।
साहब लोगो के जुटान और खान पान का पूरा ख्याल था,आर्केस्टा वालो ने भी तुम जिओ हजारो साल का गाना गा कर माहौल जमा दिया था।रात के 9 बजने वाले थे और केक काटने का समय हों चला था,ना जाने क्यों रूमा 15 मिंनट से ना जाने कहा थी,दिख ही नही रही थी,सब लोग सोच रहे थे कि लग रहा है मैंम किसी खास के इंतजार के लिए,या उसे रिसीव करने के चक्कर मे कही चली तो नही गई,जितनीं मुँह उतनी बाते होने लगी।
अच्चानक थोड़ी ही देर में रूमा अपने हाथ मे एक बैग उठाये तेजी से चली आ रही थी,और उनके पीछे एक बुजुर्ग महिला संकुचाते हुई धीरे धीरे चली आ रहीं थी। रूमा ने उन्हें कुर्सी पर बैठाया, और इशारे से आर्केस्टा वालो से माइक लिया और मेहमानों को संबोधित करते हुए कहा कि सॉरी मैं अपनी माँ का इंतजार कर रही थी,और इन्हीं को रिसीव करने रेलवे स्टेशन जाना पड़ा।
माँ के प्रति रूमा के प्रेम को देख कर सबकी आँखे भर आईं और जोर जोर से तालियाँ बजने लगी।लोग रूमा के माँ के तकदीर की सराहना कर रहे थे कि देखों भगवान ने इन्हें अफसर की माँ बना दिया।किन्तु रूमा की माँ अपने उस तकदीर को सोच रही थी जब लोग इन्हें तीन बिटिया पैदा करने के नाते अभागिन कहते थे, दौरी, कटनी,शादी वियाह सब जगह पर ताना मिलता,लेकिन रूमा के पापा कहते कि एक दिन हमार बिटिया पढ़ लिख के आगे बढ़ी और हम्मनन के।भाग्य उदय होइ।दुर्भाग्य से उसके पापा का भी देहांत रूम के दसवे वर्ष में हो जाता है।रूमा को आगे बढ़ाने के लिए,पढ़ाने के लिए उसने अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया था,अपने पति के सपने को पूरा करने के लिए उसने रात दिन एक कर दिया।इधर बिटिया रूमा भी पूरे मन से पढ़ने लगी ।उसकी योग्यता को देख कर समाज भी पूरे मन से सहयोग करने लगा। उन दुख के दिनों को सोच कर वह रोने ही वाली थी की रूमा ने कहा हे माई उठ चल केकवा काटल जाय,तोर बिटिया होइ रुमवा, अफसर नाही।
यह सुन कर वह और सब हँसने लगे ।