युवाओं में बढती कुंठा आज एक जटिल समस्या बनती जा रही हैं
जिसका कारण कहीं न कहीं आधुनिकता एवं बडो -बूढों से अलगाववादी भी है क्योंकि परेशान उदास एवं अवसाद की स्थिति में नर्वस युवा आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं क्योंकि उन्हें उस वक्त एक समझने और समझाने के लिए व्यक्ति चाहिए होता है
जो उनके पास नहीं होता शायद इसका एक प्रमुख कारण एकल परिवार भी कह सकते है जहां हर व्यक्ति खुद मे सिमट कर रह गया हैं और चकाचौंध की जिदंगी जीने की जिद्द उन्हें सच्चाई से दूर एक काल्पनिक दूनिया मे घक्का दे रही हैं जो काफी हद तक नुकसानदायक साबित हो रही हैं अब तो आत्महत्या के मामलों में पुरुषों ने इजाफा किया है आंकड़ों के मुताबिक स्त्रियों से ज्यादा भावुक पुरुषों होते जा रहे है और आत्मविश्वास की कमी उन्हें आत्महत्या जैसे कदम उठाने में मददगार साबित हो रही हैं जो खबर बन कर आए दिन अखबारों में प्रकाशित भी हो रही हैं।
छोटी छोटी बातों पे मौत को गले लगा बैठने वाले युवा अगर भावुक होते है तो फिर उन्हें अपनों का ख्याल क्यों नहीं आता क्योंकि वह वह एक गंभीर हालत में समस्याओं से जूझ रहे होते है और वह अचानक यह कदम नहीं उठाते बल्कि व्यवहार में परिवर्तन उनके महीनों पहले से आ जाता हैं बस उनके परिवार वाले समस्या समझ नहीं पाते.
मजबूर मानसिकता कि कमी और अंदर से खालीपन उन्हें तोड देता है जो उनके व्यक्तित्व पे धब्बा लगा अवसाद के चादर ओढ़ाकर दूनियाँ से अलविदा करवाने में मदद कर देता हैं और पीछ़े छोड जाते है रोते बिलखते परिजन जो उनके बेवकूफी के तमाशा बन जिदंगी भर दूख भरें दालानों मे रोते चित्कारते रहते है.
आत्महत्या जैसे सवालों से घिरे हुए मन को केवल एक बार बस समझाएं
उन्हें वह कदम याद करवाये जब आपके लिए आपके पिता ने किसी से कर्ज लिया हो या आपके देर रात आने पर भी माँ दरवाजे पे खडी नजर आई हो,
सच मानिए आपके आंखों से बहती हुई आंशू आपको मौत को मोड देगीं
खुद को व्यस्त रखें मस्त रहे
खुद के लिए ना सही बल्कि उन बूढ़े नैनो के लिए ही सही जो आपके लिए तड़पते रहते है उन्हें आपकें सहारे की आवश्यकता है ना की युवा बेटे की अर्थी की.
एक पिता की चाहत होती हैं वह अपने बेटे के कंधों पे जाए
क्या युवा पीढ़ी में इतनी सहनशीलता भी नहीं जो अपने पिता की यह मामूली सी इच्छा पूरी कर सकें.
छूटकारा पाना ही हैं तो खुद के कमजोर मानसिकता पे पाये और असहनीय पीड़ा से अपनों को बचायें.
अगर समस्या ज्यादा है तो डॉक्टर से संर्पक करें हर समस्या का निदान संवाद से ही संभव है ना कि गले में रस्सी बांधकर खुद को मिटा लेने से.
फायदे और नुकसान की जिदंगी ही तो संर्घष कहलाती हैं और इस जिदंगी को खुलकर जिएं
अपने लिए, अपनों के लिए।