सामाजिक समूह
[ SOCIAL GROUPS]
मनुष्य का जीवन वास्तव में एक सामूहिक जीवन है। यही कारण है कि सामाजिक समूह को समाजशास्त्रीय अध्ययन में एक प्राथमिक अवधारणा' के रूप में देखा जाता है। सच तो यह है कि विभिन्न प्रकार के सामाजिक समूह ही व्यक्ति को एक सामाजिक प्राणी बनाते हैं तथा उसकी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। अपने जीवन में व्यक्ति जिन सामाजिक समूहों का सदस्य होता है, विभिन्न आधारों पर उनको संख्या बहुत अधिक हो सकती है।
आरम्भ में ही यह कहना उचित होगा कि जब कुछ व्यक्ति किसी विशेष आधार पर अपने ही समान कुछ दूसरे व्यक्तियों के सम्पर्क में आते है अथवा उनके प्रति जागरूक होते हैं तब व्यक्तियों के इसी स्थायी अथवा अस्थायी संगठन को हम सामाजिक समूह कहते हैं। उदाहरण के लिए हम में से प्रत्येक व्यक्ति किसी विशेष परिवार, पड़ोस अथवा मुहल्ले का सदस्य होता है। आयु के आधार पर हम बच्चों, युवाओं और अथवा किसी वृद्ध समूह के सदस्य हो सकते हैं। लिंग के आधार पर हम स्त्री या पुरुष समूह के सदस्य होते हैं। व्यावसायिक आधार पर हम सभी क्लर्क, कलाकार, बुद्धिजीवी अधिकारी अथवा व्यापारी समूहों में से किसी एक के सदस्य हो सकते हैं। इसी तरह जो व्यक्ति एक कक्षा में साथ-साथ पढ़ते हैं, किसी एक धर्म से सम्बन्धित विश्वासों को मानते हैं अथवा एक-सी पुस्तकें पढ़ते हैं, वे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे से जुड़े होते हैं तथा समान हितों के आधार पर एक-दूसरे को अपने समीप मानते हैं। इस प्रकार व्यक्तियों के ऐसे सभी संपह एक एक सामाजिक समूह कहे जायेंगे। इस प्रकार फिचर (Fichter) के शब्दों में कहा जा सकता है कि "सामाजिक समूह कुछ ऐसे व्यक्तियों की एक स्पष्ट और लगभग स्थायी समग्रता है जो भावनात्मक आधार पर एक-दूसरे के प्रति जागरूक होते हैं तथा सामान्य स्वार्थों को ध्यान में रखते हुए एक-दूसरे के प्रति अपने दायित्वों को पूरा करते हैं। इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि सामाजिक समूहों की अवधारणा, इनकी प्रमुख विशेषताओं तथा समूह के विभिन्न प्रकारों को समझा जाय।